Tuesday

Famous verses of Baba Bulleh Shah ji

"Pi sharaab tey kha kabab, heth baal haddaan di ag, Bulleha bhan ghar rab da, ais thuggan de thug noo thug."
"Drench yourself in wine and feast on roasted flesh, roasting in the fires flaming out of the bones. O Bulleh, break into the house of God and swindle the cheat of cheats."
"Mulla tay mashaalchi dohaan ikko chit Loukan karday chananan, aap anhairae vich"
"Mullah and the torch-bearer, both from the same flock;Guiding others; themselves in the dark"
"Masjid dha de, mandir dha de, dha de jo kucch dainda Par kisi da dil na dhain, Rab dilan vich rehnda"
"Tear down the mosque and the temple; break everything in sight;But do not break a person’s heart, it is there that resides"
Naa Kaho Kab Ki Naa Kaho Tab Ki Baat Kaho Main Ab Ki

Agar Na Hote Guru Gobind Singh If Guru Gobind Singh did not exist,

To Sunnat Hoti Sab Ki
Hindu nahin na mussalmaan, Baiyey tiranjan tajj abhimaan. Sunni na nahi ham shia Sulaah kul ka maarag liya. Bhukkhey na nahin ham rajje, Nangey na nahin ham kajje. Roundey na nahin ham hasde Ujade na nahi ham vasde. Paapi na sudharmi na, Paap pun ki raah na jaan. Bulle shah jo hari chit laage, Hindu turak doojan tyaage.

Sunday

समता विलास

वचन ७० -- मुलबंधन कर्म अभिमान है (यानि " में कर्ता") इससे देह अभीमन प्रगट होता है। देह अभिमान से कुल जात अभिमान पैदा होता है। कुल अभिमान से मज़हब अभिमान पैदा होता है मज़हब अभिमान से राज इच्छया यानि मुल्क अभिमान पैदा होता है। यह ही तृष्णा नर्क को देने वाली है

वचन ७१ -- बजाय समता और प्रेम के चित में तास्सुब यानि बाद मुबाद प्रकट हो जाता हैसब धरम करम से हीन होकर और जीवों कोदुःख देता है अति अभिमान में आकर ईशवरकी हस्ती और ईशवर हुकम से मुनकिर हो जाता है तब कुदरत--कामिला उसकीहस्तीजल्द ही नाश करदेती है

वचन ७२ -- जो एक ईशवर को सब में नही देखता वह ईशवर हस्ती से मुनकिर है जो प्रेमकरके दुखी जीवों की सेवा नही करता वह ईशवरके हुकम से मुनकिर है जब माया काअभिमान प्रचण्ड होता है तब खुदगर्जी और खुद्पसन्दि में गिरफ्तार होकर अपनीइखलाकीज़िन्दगी को नाश कर देता है ख्वाइश और गज़ब में अजा बी में फंस कर दीनदुनिया दोनों से हाथ धो बैठता है यह ही हालत जीव को घोरनरक दिखलाती है ।
वचन ७३ -- इन सब बन्धनों से आजाद करने वाला सम स्वरुप ईशवर का ज्ञान है ज्यों-ज्योंईशवर उपासना को धारण करता है त्यों-त्योंइन सब बन्धनों से छूट कर सर्वग्य शकतअनादी शब्द में लीन होजाता है

वचन ७४ -- यह ही अवस्था संसार का मूल है यह ही शान्ति है यह ही परमपद है ,यह ही योग सिद्धी है इस अवस्था को जीव प्राप्त होकर करम वासना से मुक्त हो जाता है , यानि सर्वज्ञ स्वरूप एक ईशवर ही ईशवर सत आनंद अन्तर बहिर दिखाई देता है
वचन ७५ -- यह ही धाम समता ज्ञान की स्थिति है यहाँ आकर जीव शांत हो जाता है मानुष ज़िन्दगी में आकर इस यथार्थ समता धरम को धारण करना ही दुर्लभ पुरुषार्थ है नित खोज करो , नित सिमरण करो , नित ही ईशवर निवासी बनो ! मरने से पहले ज़िन्दगी का उपाए करो समता तत का विचार ही असली जीवन का लाभ है

वचन ७६ -- तमाम कर्मो के फल को ईशवर आज्ञा में अर्पण करता जावे , और अन्न प्रीति कर के सत स्वरुप का सिमरन करें ; तब ममता रुपी अंधकार अन्तर से नाश हो जाता है और समता तत अखंड शब्द अन्तर में प्रकाश करता है ये ही अवस्था ईशवर प्राप्ति की और परमानन्द स्वरुप है

वचन ७७ -- निमख निमख करके ईशवर का सिमरन करना , होना और होना सब ईशवर आज्ञा में देखना इस निश्चय को धारण करने से दुरमत भ्रम नाश होजाता है और सम स्वरुप परमानन्द अखाए शब्द में स्थिति हासिल होती है यह ही अखंड और अन्न भक्ति है ! हर वक्त समता तत के विवेक को हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए यह ही साधन मुक्ति का मार्ग है

वचन ७८ -- ब्रहम शब्द जिसका का आद है , अंत है ; सबके अन्तर व्यापक और सबसे न्यारा हा ; तीन कल सम स्वरूप है ; आलख ,अपार , अनामी ईशवर का सिमरण करना , ध्यान करना ही समता ज्ञान को प्रकाश करता है हर घड़ी ,हर लमह ईशवर का पूर्ण विश्वास रखना चाहिए इस धरना को हासिल करते - करते समता ज्ञान की स्थिति प्राप्त हो जाती है। तब सर्व स्वरूप एक नारायण ही दिखाई देता है
वचन ७९ -- द्वैत भावः को नाश करके जीव सत स्वरूप अविनाशी परमेश्वर में लीन हो जाताहै। फ़िर आवागमन के नाशवान दुःख - सुखकर्म चक्र में नही प्राप्त होता केवल ब्रहम स्वरुपहोजाता है ।

वचन ८० -- नित ही सत मार्ग में यतन करो । कल स्वरुप इच्छया के भ्रम को त्याग कर समता ज्ञान ,निष्काम निर्वाण पड़ को प्राप्तहोजाओ ! इस मिथ्या संसार में आने का परम लाभ समता प्राप्ति है ।

समता विलास (प्रथम अनुभव - समता निधन)

वचन ७० -- मुलबंधन कर्म अभिमान है (यानि " में कर्ता") इससे देह अभीमन प्रगट होता है देह अभिमान से कुल जात अभिमान पैदा होता है कुल अभिमान से मज़हब अभिमान पैदा होता है मज़हब अभिमान से राज इच्छया यानि मुल्क अभिमान पैदा होता है यह ही तृष्णा नर्क को देने वाली है
वचन ७१ -- बजाय समता और प्रेम के चित में तास्सुब यानि बाद मुबाद प्रकट हो जाता है ,सब धरम करम से हीन होकर और जीवों को दुःख देता है अति अभिमान में आकर ईशवर की हस्ती और ईशवर हुकम से मुनकिर हो जाता है तब कुदरत--कामिला उसकी हस्ती जल्द ही नाश करदेती है
वचन ७२ -- जो एक ईशवर को सब में नही देखता वह ईशवर हस्ती से मुनकिर है जो प्रेम करके दुखी जीवों की सेवा नही करता वह ईशवर के हुकम से मुनकिर है जब माया का अभिमान प्रचण्ड होता है तब खुदगर्जी और खुद्पसन्दि में गिरफ्तार होकर अपनी इखलाकी ज़िन्दगी को नाश कर देता है ख्वाइश और गज़ब में अजा बी में फंस कर दीन दुनिया दोनों से हाथ धो बैठता है यह ही हालत जीव को घोर नरक दिखलाती है
वचन ७३ -- इन सब बन्धनों से आजाद करने वाला सम स्वरुप ईशवर का ज्ञान है ज्यों-ज्यों ईशवर उपासना को धारण करता है त्यों-त्यों इन सब बन्धनों से छूट कर सर्वग्य शकत अनादी शब्द में लीन होजाता है
वचन ७४ -- यह ही अवस्था संसार का मूल है यह ही शान्ति है यह ही परमपद है ,यह ही योग सिद्धी है इस अवस्था को जीव प्राप्त होकर करम वासना से मुक्त हो जाता है , यानि सर्वज्ञ स्वरूप एक ईशवर ही ईशवर सत आनंद अन्तर बहिर दिखाई देता है
वचन ७५ -- यह ही धाम समता ज्ञान की स्थिति है यहाँ आकर जीव शांत हो जाता है मानुष ज़िन्दगी में आकर इस यथार्थ समता धरम को धारण करना ही दुर्लभ पुरुषार्थ है नित खोज करो , नित सिमरण करो , नित ही ईशवर निवासी बनो ! मरने से पहले ज़िन्दगी का उपाए करो समता तत का विचार ही असली जीवन का लाभ है
वचन ७६ -- तमाम कर्मो के फल को ईशवर आज्ञा में अर्पण करता जावे , और अन्न प्रीति कर के सत स्वरुप का सिमरन करें ; तब ममता रुपी अंधकार अन्तर से नाश हो जाता है और समता तत अखंड शब्द अन्तर में प्रकाश करता है ये ही अवस्था ईशवर प्राप्ति की और परमानन्द स्वरुप है
वचन ७७ -- निमख निमख करके ईशवर का सिमरन करना , होना और होना सब ईशवर आज्ञा में देखना इस निश्चय को धारण करने से दुरमत भ्रम नाश होजाता है और सम स्वरुप परमानन्द अखाए शब्द में स्थिति हासिल होती है यह ही अखंड और अन्न भक्ति है ! हर वक्त समता तत के विवेक को हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए यह ही साधन मुक्ति का मार्ग है
वचन ७८ -- ब्रहम शब्द जिसका का आद है , अंत है ; सबके अन्तर व्यापक और सबसे न्यारा हा ; तीन कल सम स्वरूप है ; आलख ,अपार , अनामी ईशवर का सिमरण करना , ध्यान करना ही समता ज्ञान को प्रकाश करता है हर घड़ी ,हर लमह ईशवर का पूर्ण विश्वास रखना चाहिए इस धरना को हासिल करते - करते समता ज्ञान की स्थिति प्राप्त हो जाती है तब सर्व स्वरूप एक नारायण ही दिखाई देता है
वचन ७९ -- द्वैत भावः को नाश करके जीव सत स्वरूप अविनाशी परमेश्वर में लीन हो जाता है फ़िर आवागमन के नाशवान दुःख - सुख कर्म चक्र में नही प्राप्त होता केवल ब्रहम स्वरुप होजाता है
वचन ८० -- नित ही सत मार्ग में यतन करो कल स्वरुप इच्छया के भ्रम को त्याग कर समता ज्ञान ,निष्काम निर्वाण पड़ को प्राप्त हो जाओ ! इस मिथ्या संसार में आने का परम लाभ समता प्राप्ति है

Monday

Perfect Genuine Guru

Disciple’s Question :

As you keep moving around,can you give me the details of a perfect genuine guru.Or at least give me some hints to test and recognise him.I don’t believe in this guru-lineage and hypocrisy and would rather remain without a guru than become a victim of this system.What are your views?Kindly explain some easy criteria to test him.

Gurudev’s Answer:

My dear,it is absolute correct.It is better to remain without a guru than become a victim of hypocrisy.But do keep up constant search .I will give you some hints to specifically look for in a genuine guru so as to combat deception.

  1. There is complete harmony in what he says and what he does.
  2. He is self educated and his knowledge does not stem from books but springs from the depth of life and mind.
  3. He is paradigm of peace and mind ; a symbol of mental peace.
  4. He is beyond the reach of temptations like those of wealth and honour ,dignity and fame.
  5. He remains for long time in Samadhi.
  6. He lives away from women and does not allow to meet women privately.
  7. He is a man of utmost compassion.
  8. He remains constantly detached from the world.Dispassion is his constant nature.
  9. He is not affected by the nine gates of sense organs.

Having killed his desire , he remains absolved in the imperishable word.Such a man transcends the sphere of Maya (illusion) of three modes and remains established in the self and he is a great teacher for others as well.One should immediately believe in such a Guru.Complete faith and devotion would bring in Guru’s grace in your system automatically. Thereafter,whatever is taught by the grace and your practice accordingly with full devotion and commitment would bring in the results.You would then experience a power quite apart from your body is subject to fear ,hunger ,thirst,heat and cold,life and death and so on. The soul is beyond all this.When you would experience this state of external bliss,it would result in peace in all environments.This practice would bring in peace despite all turmoil around you.Without constant spiritual practice,one is a mere shell like pitcher without water.