Wednesday

समता विलास (प्रथम अनुभव - समता निधन)

  • वचन- समता शक्ती से कुल दुनिया का निजाम खड़ा है
  • वचन - समता के आधार पर कुल दुनिया की राजनीती और धरमनिति बनी हैजो समता के बगैर निति होती है,वह दुख्दाए है और जल्द ही नाश हो जाती है
  • वचन - समता शक्ति अनुभव करके कुल महा पुरुषों ने निजात हासिल की और लोगों को रहत--अब्दी सिखलाई
  • वचन - समता ही को धरम कहते हैं ,जब इसका प्रकाश लोप होजाता है, उस वक्त फ़िर सत्पुरुष आकर अमली ज़िन्दगी द्वारा प्रकाश दिख्लातें हैं
  • वचन - समता ही असली खुशी है जो हर जीव अन्तर से चाहता है
  • वचन - समता ही जीवन हैजो चीज़ समता छोड़ती है वह नाश होजाती है
  • वचन - समता ही असली स्वराज है जो हर एक दुनियावी कैद से निजात देता है और परमानन्द को प्राप्त करता है
  • वचन - समता ही का ज़हूर कुल दुनिया हैसब पदार्थ एक दुसरे के प्रेम से खादें है
  • वचन - समता ही का विचार कुल दुनिया की किताबें बतलाती हैंजिसमें समता का विचार नहीं है वह इल्हामी किताब नहीं बल्कि मन घडत कहानी है
  • वचन १०- समता ही कुल फकीरों का मैराज यानि परमपद है.वहां प्राप्त होकर खवाहिश के अजाब से छुट पाई है

Monday

आप्त पुरुषों के वचन

  • "जब-जब धर्म की हानी और अधर्म की वृद्धि होती है , तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ "

(योगेश्वर श्री कृष्ण )

  • "जब-जब धर्म की हानि होने लगती है और भूमंडल पर आसुरी प्रकृति एवं अभिमानी पुरुषों की बढोतरी हो जाती है , तब-तब मैमानुष चोले में आता हूँ और सज्जनों के कष्ट और संकटों को निवारण करता हूँ ।"

(भगवन श्रीराम)

  • "याही काज धारा हम जनम।समझ लेओ साधू सब मनम॥
धरम चलावन संत उबारण।दुष्ट सबन को मूल उपरण॥"
(विचित्र नाटक : श्री गुरु गोविन्दसिंह जी महाराज)
  • जब समता धरम का प्रकाश लोप हो जाता है उस वकत फ़िर सत्पुरुष आकार अमली ज़िन्दगी द्वारा प्रकाश दिख्लातें हैं । "

(ग्रन्थ श्री समता विलास)

Sunday

गुरमुख के लक्षण (सदगुरु देव मंगत राम जी महाराज)

गुरु के आगे शिष्य को कभी झूठ नही बोलना चाहिए । अपने अंदर जो भी कमी पेशी हो या कोई त्रुटी हो, खोल कर रख देनी चाहिए । भूल कर भी गुरु के शरीर के साथ पाव न लगावें । सचे प्रेम और विश्वास से गुरुचरणों में हाज़िर होने वाला ही साचा जिज्ञासु है । हर समय आज्ञाकारी भावना रखो । गुरु के नाम को उचारण करने वाले को भी प्रणाम करो । गुरुस्वरूप को बारम्बार नमस्कार करो । जितने भी गुरु की आगया या गुरु के वचनों पर मर्मिटने वाले शिष्य हैं , सबके साथ हित रखो । इन पर अमल करने से ख़ुद अपने अंदर प्रसंता पाओगे । गुरु के देश का भी अगर कोई सज्जन मिल जावे , उस पर भी बल-बल जाने की कोशिश करो । वाणी बड़ी नम्रता से बोलो । मन तन से जो सेवा बन सके करके अपने को कृतार्थ करो । जब गुरु के पास जाओ, हाथ जोड़ कर दंडवत करो , और हाथ जोड़ कर खड़े रहो । जब गुरु आगया देवें तब बैठो या जैसी आज्ञा देवें वैसा करो । दर्शन करके अपने आपको गुरु पर न्योछावर करो । गुरु के मुख से जो वचन निकलें , उनको अपने हृदये में जगह दो और अपने अवगुणों को दूर करो । ऐसे गुरमुखी जिज्ञासु पदके हक़दार होते हैं। किसी के सामने गुरु या साधू की कभी निंदा न करो । गुरु और साधू की स्तुति करने वाला ही प्रभु की महिमा गायन करने वाला है। भगवन के भक्तों की निंदा करने वाला ही ईशवर की निंदा करता है। यही भटकना है। प्रेमी , तुमसे गलती हो भी जाती है , तब भी तुम को ज्ञान , विचार ही मिलेंगे। गुरु हर घड़ी शिष्यों का भला चाहने वाला होता है। शिष्य के अपने कर्तव्य होते है । शिष्य को गुरु के हृदये की बात समझ लेनी चाहिए, उन्हें बताने की ज़रूरत ही न पड़े ।
गुरु महिमा
साचा गुरु हरी रूप है , सकल जियां आधार ।
'मंगत' पदियो चरण तिस , कर दंडवत बारम्बार ॥
नित हूँ में सर्नागति , पड़ परम पुरख प्रभराये ।
'मंगत' की सुन बिनती , नित प्रभ जी होत सहाए ॥
सत स्वरुप नित ध्याइये , अन्न प्रीत चित धार ।
'मंगत ' मिटे सब कल्पना , सत ठाकुर चरण पधार ॥

गुरुनानक देव जी फरमाते हैं

साध के संग मुख उजजल होता साध के संग मिल सांगली खोत साध के संग मिटे अभिमान साध के संग प्रगट मन ज्ञान साध के संग पाये नाम रतन साध के संग एक ऊपर जतन॥

महाभारत से एक विचार

तुच्छ विचार वालों की संगति से बुद्धि तुच्छ हो जाती है। सामान श्रेणी के मनुष्य की संगति से ज्यों की त्यों बनी रहती है और उच्च विचार वाले की संगति से व्ह श्रेष्टता को प्राप्त होत है .

"वह आत्मा हम हैं"

जा बोल ता अक्षर आवा , जा अबोल ता मन न रहावा । बोल अबोल बीच है जोई , जो जस है तिस लखे न कोई। भावार्थ : - कबीर जी कहतें है की जहाँ वाणी है वहां शब्द अक्षर भी होते हैं और जहाँ अबोल यानि वाणी नही है मौन है यानि जो अशब्द पद हैं वहां मन नही रहता। दुसरे शब्दों में जब मन में फुरना होता है तब वहां शब्द वाणी भी होती है। जब मन का स्फूर्ण शांत होता है वहां वाणी भी शांत हो जाती है। अब कबीर साहिब आगे कहतें हैं की बोल अबोल,वाणी व् मौन या फुरना अफुरना इन दोनों के बीच में जो इनको जानने वाला और सिद्ध करने वाला है उसका जैसा स्वरूप है उसको कोई नही जनता । वह चेतन सत्ता जिसको ब्रह्म या आत्मा कहते है। वहि बोल अबोल के मध्य में रहती ,उनको अनुभव करती और सिद्ध करती है। वास्तव में वही हमारा सत्य स्वरुप आत्मा है। फूरना और अफूरना , विकल्प , निर्विकल्प यह मन की दो अवस्थाएँ हैं । आत्मा उनका साक्षा अवं दृष्ट है। वह आत्मा हम हैं ।

Saturday

जीवन की सफलता

परमेश्वर महान है। उसी ने सृष्टि का निर्माण किया है। जिस प्रकार एक पेड़ का आधार उसकी जड़ें होती है उसी प्रकार समस्त संसार आधार परमेश्वर है। अच्छे कर्मों के बाद ही मानव शरीर प्राप्त होता है। संसार में मानुष योनी के अतिरिक्त जितनी भी योनियाँ है उनमें जीव अपने कर्मों का फल भोगता है। मानुष को चाहिए जीवन को बर्बाद ना करें ।परमात्मा का चिंतन करके अपने जीवन को महान बनाया जा सकता है । बगेर चिन्तें से मन की पवित्रता में वृद्धि नही होती है। इसके आलावा परमात्मा की स्तुति से मनुष्य के चित्त की शुद्धता और प्रार्थना से अंहकार पर काबू पाया जा सकता है। आदतें आदमीं का जीवन चरित्र बनती है । वहि व्यक्ति अपने जीवन का मालिक होता है, जो अपने निरंकुश स्वभाव और आदतों पर विजय प्राप्त करलेता है। जो अपनी ही आदतों से पराजित हो जाता है वह गुलाम है। धर्म जब जीवन में उतर जाता है ,तो वह चमत्कार करता है । वह जनम जन्मान्तरों के कष्ट काटकर जीवन को ऊंचा उठा देता है। करम शुधि का ध्यान रख कर ही मानव अपने जीवन को आनंद पूर्ण बना सकता है। जीवन में कुछ बन्ने के लिए खास तरह के अनुशासन की आवश्यकता होती है। अनुशासन में शक्ति होती है, बल होता है। इस लिए सत्संग में आने वाले साधक को अनुशासन में रहना ज़रूरी है। आतम कल्याण के मार्ग में पूर्ण रूप से एकाग्रचित होकर बैठना चाहिए।जीवन को व्यवस्थित बनने की भी आवश्यकता है। व्यवस्थित जीवन मनुष्य को संतुलित बनता है।

आज का मानव

ना जाने आज के मानव को क्या होगया हे ऐसा लगता हे जैसे उस्का विवेक कहीं खो गया है भूल करने अपनी आदर्श सभ्यता को व्यक्ति चरित्र विहीन ओगाया है विलुप्त होगई प्राचीन संस्कृति हमारी सदाचरण पश्चिमी सभ्यता में विलीन होगया अंग्रेजी शिक्ष से मनुष्यता को नापने का पैमाना बदल गया वेश भूषा ही रह गई शिक्षित की पहचान ज़माना बदल गया आज के युवा वर्ग को फास्ट म्यूजिक पर गाना अच लगता है रास आए आए आज अंग्रेज़ी चलन अपनाना अच लगता है बदलते ज़माने के साथ चलना इंसान की मज़बूरी होगयाकम कपड़े पहेनना महिलाओं के लिए ज़रूरी होगया भेडचाल में फस कर मानव अपने सत्विचार भूल गया प्रदेश जाकर जैसे कोई सज्जन अपना घर-बार भूल गया है फिल्मों ने लूट पाट भ्रष्टाचार बलात्कार समाज को दिया है निर्माताओं ने अपनी जेबें भरी समाज का सुख चैन हर लिया है विज्ञानिकों ने विज्ञानं के बड़े बड़े अविष्कार किये है मानव बम बना मानव जाती पर प्रहार किए हें अबोध को कुछ बोध नहीं आकर उसे समझा तो जाए कोई भटके हुए मानव का ईमान लौटा जाए कोई

Sunday

योग - भगवत्प्राप्ति (Yog - Bhagwatprapti)

योग क्या है:-
योग शब्द संस्कृत के 'यूज' धातु से बना है जिसका अर्थ है जोड़ना अर्थात ईशवर से जुड़ना युक्त हो जन अर्थात जीव और ब्रहम के पूरण रूप से मिलन ।
गीता के अनुसार :-
"सम्तवं योग उच्यते " २/४८ समता को योग कहतें है। 'समता' का अर्थ गुरुदेव मंगत राम जी के शब्दों में समझते है। हर हालत में एक रस होना, ग्रहण और त्याग की कामना से मुक्ति हासिल करना यह ही ईशवर की भक्ति और मुक्ति है।
योग की परिभाषा कुछ इस प्रकार है :-
समता को निष्चल बूढी करके विचार करना और विरत रहित मन करके विचार करना ही असली "योग" है।
मह्रिषी पातंजलि के अनुसार :-
योग श्चिन्तवृति निरोध: । (१.२) चित की वृतियों का निरोध ही 'योग' है।
योगवशिष्ट के सब्दों में :
'मनः प्रषमनोपयः योगः इत्यभिधीयते।' मन को शांत करके ही कुशल युक्ति का नाम योग है।
कठोपनिषद में :-
'ता योगमिति मन्यन्ते स्थिराभिनंद्रिये धरणं ' (२.३.११) अर्थात हमारी इन्द्रियों का स्थिर होना अर्थात इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण की अवथा है।
अन्य धर्मों के अनुसार:-
बौध धरम में "योग" शब्द का अर्थ "जुड़ना" से ही है। जुड़ने से तात्पर्य जीवात्मा और परमात्मा परतु बौध धरम में " जीवात्मा और परमात्मा" शब्द का प्रयोग नही हुआ है। उसके स्थान पर बोधिचित और शून्य शब्द आते है। बौध शास्त्र के अनुसार बोधिचित एक प्रकार के जीवात्मा अथवा व्यष्टि चेतन का वाचक है और शून्य परमात्मा अथवा समष्टि चेतन का पर्याय है।
जैन धरम में भी 'योग ' का अर्थ 'जुडना' से सहमत है। मोक्षण योजनादेव योगो हव निरुच्यते .

समता ज्ञान

समता ज्ञान का विशेष साधन यह है, की सब जगत को एक ईशवर का प्रकाश समझ कर तन मन, धन से निष्काम भावः और नीराभिमान होकर सेवा करनी।

गुरुदेव की चेतावनी :-

जब तक तू अपने कल्याण के लिए स्वयं सोचेगा,समझेगा,मानेगा और उसके माफिक चलेगा नहीं,तब तक साक्षात् ब्रम्हा भी जावे तो तेरा कुछ नहीं बन सकता। यह शरीर अपूर्ण है ,इसके भोग अपूर्ण है,यह संसार अपूर्ण है,इस अपूर्ण शरीर और अपूर्ण संसार में पुरंताई को तलाश करना महज मुर्खता है। यह बात तू आज समझ ले दस साल बाद समझ ले या चार जनम बाद समझ लेना आख़िर यह ही समझना पड़ेगा क्यूँ अपने सफर को लंबा करता है।
उठ ! जाग ! और अपने कल्याण के मार्ग पर बढ चल
( सत्पुरुष महात्मा मंगतराम जी )

Saturday

Concept of True Ram Raj

Good governance, for the greatest good, for the largest number of people, is the most essential requirement of the good government may it be democracy, kingdom, or dectatorship or any other form of government.We can not say whether Alexander pope, a great english poet had certainly understood the concept of Ram Raj when he wrote “For forms of government let fools contest what ever is best administered is best.” Freedom is an essential ingridient of true Ram Raj but unbridled freedom is fraught with unlimited dangers. It brings along with ceratin checks and responsilbilities which are as essential as liberty.

A ruler of a state wishes that hos state subjects should always feel happy and contented. To achieve this end, the people inhabiting the state shall have to follow certain norms, for instance, they should follow the maxim of “Simple living and high thinking” as is propounded by all great men from time to time and country to country.

Mahatma Mangat Ram Ji Maharaj,a great indian philosopher and spriritualist of modren times had laid stress on leading a simple life. While preaching simplicity he suggested that man should acquire simple habits in matter of eating,clothing, utterance,thinking and company (that is eating only to live,clothing only to cover and protect the body from cold and heat, speak only to express his views impartially without any fear or fervour). Consequently necessities of human life will be minimised and man will astain from enjoying a luxurious life without indulging in illicit means. Thus the life on earth shall become worth living peacefully. While expressing his views with regard to the stae services, he advised that govt. Servants should be honest, sincere and cordial in the relations with the general public.

Education, he opined , should be imparted with atmost simplicity and celebacy in seperate schools and colleges for boys and girls so that there is least opportunities for charater degradation while aquiring knowledge. As a consequence they will become perfect citizen usful for there country and fellow beings. Futher he belived in provinding knowledge to everyone according to his/her ability and competence.However women should be well worsed in areas of morality,householding,nurturing,nursing the sick and at the same time enjoying freedom with limitations.All this can be achieved practicaly if major portion of the state revenue is channelised towards development of education and literacy.

Business comunity should carry on their activities scrupulously within fixed timings,keeping in mind price control,purity and quality of all kinds of articles without any adultration.

Finally he laid stress on adopting the basic principles of virtuos life such as truthfullness,selfless service to the poor and the needy,equanimity,fraternity and patriotism and these should be given utmost pripority and publicity amongst the general masses.

He was very perticular about putting a check on inflation and consequent price rise of essential commodities.Issue of currency by the exchequer should be such that their is a fair circulation of money among the masses to an extent that rich may not become extremely rich at the cost of those who are already below the poverty line.

These are the concepts of the True Ram Raj which if put in practise will certianly make the human life peaceful and cheerful.

Today India needs Ram Raj badly and urgently.Moral degradation,criminalisation of polotics,curroption in high places and blatant misuse of power have made it imparitive for the masses to rise up against the decaying political system to demand Lord Rama to defeat the evil forces of Ravana and enforce Ram Raj in letter and spirit.Let us invoke the spirit of Shri Mangat Ram Ji maharaj to bless us with Ram Raj.We sincerely hope that God has mercy on us and would make our rules wise,far sighted,spiritualist and inculcate in them nobility and benign quality of meditation.

Sunday

यह सदी

यह सदी है समृधि की,उत्पादों की और उपभोग की;यह सदी है गरीबी की आभाव की और भूख की;यह सदी है मानववाद की ,प्रजातंत्र की, और समाजवाद की ; यह सदी है क्रूरता की शोषण की और विषमता की। आज का धर्म हे भोग्प्रयानता ,आज का उदेश्ये है माया का संग्रह । क्या विचारक और क्या जाहिल ,क्या धनि और क्या दरिद्र -- सभी अंधी वासना का शिकार होकर एक दुसरे का नाश कर रहे है । अमीरों की हवस का अंत नही ; गरीबों की कुंठा का चोर नही । हर कोई भोग पदार्थों के लिए ललचा रहा है। न तो पूंजीवाद और न ही साम्यवाद -- इस भोगवाद के खतरे के प्रति जागरूक हैं । ज़रूरतों की ज्यादती ने साब को अँधा बना दिया है । आज एक सनिकट संकट के व्यापक भय से मानवता त्रस्त है और सुरक्षा के लिए विनाश के सामान बनने में व्यस्त है। वासना और चतुराई के इस अंधे युग में सादगी और मर्यादा का संदेश सहज विचारों से नही दिया जा सकता । मुनकिर अक्ल अमल के आगे झुकती है ; चतुराई मोज़ज़े से मात खाती है। गुरुदेव का जीवन एक ऐसा ही मोज़ज़ा था, एक अनुखा चमत्कार था । यहाँ मानवता की सीमाएं टूटती नज़र आती है , देवत्व का अभीमन गिरता नज़र आता है। यह दीनता और गरीबी की कहानी है; और इसी कारन यह ऐश्वर्ये और महिमा से दीप्त है । यह उस दिव्या पुरूष की कहानी है जिसकी रातें आसमान के तले कटती रहीं; जिसका जीवन एक बार की चाय पर चलता रहा ; जिसकी पच्चीस वर्ष की आयु के बाद कभी आँख न लगी। जंगलों और बियाबानो में बैठे उसके मुख से अनजाने ही देववाणी का प्रवाह निकलता रहा । यहाँ सोची बात से मतलब नही था ; यहाँ देखि का सौदा था । (मेरी गुरुदेव - लेखेक श्री सोमराज गुप्त ) संगत समतावाद

Power Unlimited: Relation of Man with God

A book by Shri D. N Saraf One of Gurudev's Diciples http://books.google.co.in/books?hl=en&id=uGIBiADylWUC&dq=power+unlimited&printsec=frontcover&source=web&ots=b4-IcMCfO5&sig=8pfxkQ6iektksxPHFMmsxvO2aBE&sa=X&oi=book_result&resnum=3&ct=result#PPP1,M1

Monday

गुरु नानक देव ने कहा है

1. ईशवर पर विश्वास और सब्र देवगुण इंसानों की खुराक है। 2. किसी को बुरा कहो यही शिक्षा का सारांश हैमुर्ख के साथ वाद विवाद मत करो। 3. मेरी बीवी,मेरा बेटा, मेरा बाप , मेरा भाई इनमे कौन हे जो मेरा हाथ पकडेगा ? जब में मौत के चंगुल में हुआ ,तो इनमे से कोई भी मुझे बचाने ना अपेगा। 4. चाँदी और सोना माहेज धोका है, और एक दिन वो खाक में मिल जावेगा। 5. जब कोई इंसान खुदा के साथ सम्बन्ध स्थापित करता हे ,उस पर आतम साक्षात्कार होजाता है कोई हिंदू हे कोई मुस्लमान ,सब केवल इंसान हैं
जब तुम आय जगत में जग हँसा तुम रोयेऐसी करनी कर चलो,तुम हँसो जग रोये॥ वह चल चल की उम्र खुशी से कटे तेरीवह काम कर की याद तुझे सब किया करेंजो ज़िक्र हो तेरा तो हो जिक्र खैर हीऔर नाम तेरा लें तो अदब से लिया करें

सत्पुरुष

सत का मखंड पाखंड खंडन ,सत्पुरुष जग आए। पाप विषाद का नाश कारन ते ,केते दुःख उठाये॥ (गुरुदेव महात्मा मंगत राम जी)

मैंने मांस खाना क्यूँ छोड़ा

मैं नदी किनारे पर खड़ा था। कुछ लोग पानी के कुछ जानवरों को पकड़कर नाव में डालकर दुसरे किनारे ले जा रहे थे । एक जानवर ने कुछ ही दूर जाकर पानी में छलांग लगा दी और तैरने लगा। पकड़ने वाले ने भी उसके पीछे छलांग लगा दी। जानवर ने उसको देखकर गति तेज़ कर दी लेकिन ज्यों ही वोह जानवर किनारे पर पहुँचने वाला था उन्होंने उसे पकड़ लिया । जानवर बुल्बुलाने लगा । लेकिन पकड़ने वाले उसे कहाँ छोड़ने वाले थे । मै बुल्बुलाती जान को देखकर उसके अंत को सहें न कर सका । उस दिन से मैंने मांस खाना छोड़ दिया। (रविंद्रनाथ टैगोर)

Sunday

पूजा पाठ में पाखंडी मत बनो

कए साल पहले की बात है की बंगाल का एक बड़ा ज़मीदार द्वारका नदी के किनारे बने तारापीठ में तारादेवी के दर्शन करने गयाउसने सोचा की दर्शन करने से पहले ही मुझे स्थान के रोजाना के नित्य नियम से छुट्टी पा लेनी चाहिए। इस लिए वह स्नान करके किनारे पर पूजा करने लगाआख़िर में ध्यान करने के लिए उसने आँखे बंद करलीउसी समय प्रसिद्ध संत "वाम्क्षेप" भी नदी में स्नान कर रहे थेवे ज़मीदार की ओर थोड़ी देर तक देखते रहे.फ़िर अचानक उसके ऊपर पानी की छींटे मर कर हँसने लगेज़मीदार की आँखें खुल गएवह समझ नही सका कि यह व्यक्ति मेरे ध्यान में विघ्न क्यूँ दल रहा हे? वह "वाम्क्षेप" जी को जानता भी नही था .थोड़ी देर तक तो धीरज पूर्वक उसने छींटे सहन किएलेकिन जब "वाम्क्षेप" का उसपर पानी फेंकना बंद हुआ तब उसे क्रोध अगयाउसने डाँटते हुए कहा:- तू , अँधा हे क्या? देखता नही में इश्वर का ध्यान कर रहा हूँ तू मुझे क्यूँ छेड़ रहा हे? इस पर संत अधिक ज़ोर से हसे और बोले :- तू ध्यान कर रहा हे या कलकाता कि मुराएंड कंपनी कि दुकान से जूते खरीद रहा हेऐसा कह कर वह और अधिक वेग से उसके ऊपर पानी उछालने लगेज़मींदार हैरान रह गया सचमुच ध्यान के समय उसका मन् कलकाता कि सड़कों पर थाऔर जुटा खरीदने के लिए उस दुकान पर भी गया था जिसका नाम संत "वाम्क्षेप" ने लिया थाउसने अंदाजा लगाया कि मन् कि बात जान लेने वाला कोई साधारण व्यक्ति नही है तब अत्यन्त संकुचित होकर विनीत भावः से ज़मींदार ने कहा :- आप ठीक कहते हें महाराज जी! मेरा मन् वहीं था जहाँ अपने कहा कृपया करके मुझे आशीर्वाद दीजियेजिससे मैं भटकने वाले इस मन् पर काबू पा सकू और ध्यान के समय में केवल भगवन का ही चिंतन करूँ "वाम्क्षेप" जी हस्ते हुए बोले ! मेरे बचे,पूजा पाठ में पाखंडी मत बनो