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गौतम बुद्ध व् उनके परम शिष्य आनन्द का संवाद

प्रिय शिष्य आनन्द ने जब भगवन के मुख से अपने समीप आये परि-निर्वाण का वचन सुना तो उसका ह्रदय शोक से विदीर्ण हो गया । उसकी आँखों से अविरल अश्रु धरा बहने लगी । उसे शोका कुल देख कर भगवान् बुद्ध ने गंभीर स्वर से फिर कहना शुरू किया :- आनन्द! क्या तुम आतम-विश्वास को खो बैठे हो ? क्या मैंने तुमसे यह बात बार-बार नहीं कही है की प्रिय वस्तु से विच्छेद अवश्यंभावी है? जिसका जमन हुआ है उसका मरण निश्चित है । यह संसार का ध्रुव नियम है। इसलिए यह कैसे हो सकता है की मै अमर हो कर मृत्यु लोक मे सदा बैठा रहू? आनन्द! मेरा शरीर अब बहुत वृद्ध हो चुका है। इसकी जीवन यार्ता समाप्त हो चुकी है। मै अब अस्सी वर्ष की आयु तक पहुच चुका हू। जिस प्रकार एक जीर्ण रथ के लिए अधिक यात्रा करनी कठिन होती है । उसी प्रकार इस मेरे वृद्ध शरीर के लिए अधिक देर तक जीवित रहना कठिन है।

कुछ प्रशन और गुरुदेव के उत्तर

वह पावन पुरुष ऐसा था जिसके पास हर समस्या का समाधान और हर प्रशन का उत्तर था और फिर संसार से अलग रह कर भी संसारी कमजोरियों को जानता , पहचानता था आप कैसे भी प्रशन क्यों करें उत्तर तुरन्त मिलता था।
  • एक बार एक प्रोफ़ेसर ने पूछा : - "आपका मजनू के बारे में क्या ख्याल है ?" (कोई दूसरा संत होता तो मजनू कानाम सुनकर झेंप जाता )
  • आपने बिना झिझक के उठतात दिया : - "लाल जी ! उसकी वृति वाकई ( वास्तव में) काबिल--तारिकसराहनीय) थी "
  • किसी ने पूछा : महाराज जी ! फाज़िल (विद्वान्) कैसे बन सकते है ?
  • आपका उत्तर था : - कामिल फकीर की सीख से आमिल बनोगे तो फजील खुद-बी-खुद बन जाओगे।
  • किसी ने पूछा :- " महाराज जी ! कभी बैठे बिठाये संसार से मन उचाट होजाता है , मन पर एक अदभुत सी उदासीछा जाती है !"
  • आपका उत्तर था : - " लाल जी ! आपने अभी तक अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित ही नहीं किया बिना लक्ष्य के जीवन व्यतीत करने वाले का ऐसा ही हाल होता है.

सतगुरु जी का फरमान

अपनी तमाम खुदगर्ज़ी और स्वार्थ का त्याग कर देना , केवल प्रभु आज्ञा में निश्चित होकर तमाम जीवों की कल्याण करनी और कल्याण चाहनी , अपनी शक्ति के मुताबिक, यह भावना ईशवर परायणता है । यानि एक ईशवर के द्रिढ़ परायण होने से देह की शुद्धी , खानदान यानि कुल की शुद्धी , समाज की शुद्धी या उन्नति और देश की उन्नति या पवित्रता गुनी पुरुष कर सकता है और इसी ईश्वरीय नियम के अनुकूल चलकर अपने आपका सुधार भी कर सकता है । यानि तमाम खुदगर्ज़ी को त्याग करके अपने फ़र्ज़ को समझते हुए नीराभिमान होकर यथाशक्ति तमाम जीवों का कल्याण करना ही असली शान्ति प्राप्ति का साधन है ।