वचन ७० -- मुलबंधन कर्म अभिमान है (यानि " में कर्ता") । इससे देह अभीमन प्रगट होता है। देह अभिमान से कुल जात अभिमान पैदा होता है। कुल अभिमान से मज़हब अभिमान पैदा होता है । मज़हब अभिमान से राज इच्छया यानि मुल्क अभिमान पैदा होता है। यह ही तृष्णा नर्क को देने वाली है ।
वचन ७१ -- बजाय समता और प्रेम के चित में तास्सुब यानि बाद मुबाद प्रकट हो जाता हैसब धरम करम से हीन होकर और जीवों कोदुःख देता है । अति अभिमान में आकर ईशवरकी हस्ती और ईशवर हुकम से मुनकिर हो जाता है तब कुदरत-ऐ-कामिला उसकीहस्तीजल्द ही नाश करदेती है ।वचन ७२ -- जो एक ईशवर को सब में नही देखता वह ईशवर हस्ती से मुनकिर है । जो प्रेमकरके दुखी जीवों की सेवा नही करता वह ईशवरके हुकम से मुनकिर है । जब माया काअभिमान प्रचण्ड होता है तब खुदगर्जी और खुद्पसन्दि में गिरफ्तार होकर अपनीइखलाकीज़िन्दगी को नाश कर देता है । ख्वाइश और गज़ब में अजा बी में फंस कर दीनदुनिया दोनों से हाथ धो बैठता है । यह ही हालत जीव को घोरनरक दिखलाती है ।वचन ७३ -- इन सब बन्धनों से आजाद करने वाला सम स्वरुप ईशवर का ज्ञान है । ज्यों-ज्योंईशवर उपासना को धारण करता है त्यों-त्योंइन सब बन्धनों से छूट कर सर्वग्य शकतअनादी शब्द में लीन होजाता है ।
वचन ७४ -- यह ही अवस्था संसार का मूल है । यह ही शान्ति है । यह ही परमपद है ,यह ही योग सिद्धी है । इस अवस्था को जीव प्राप्त होकर करम वासना से मुक्त हो जाता है , यानि सर्वज्ञ स्वरूप एक ईशवर ही ईशवर सत आनंद अन्तर बहिर दिखाई देता है ।
वचन ७५ -- यह ही धाम समता ज्ञान की स्थिति है । यहाँ आकर जीव शांत हो जाता है । मानुष ज़िन्दगी में आकर इस यथार्थ समता धरम को धारण करना ही दुर्लभ पुरुषार्थ है । नित खोज करो , नित सिमरण करो , नित ही ईशवर निवासी बनो ! मरने से पहले ज़िन्दगी का उपाए करो । समता तत का विचार ही असली जीवन का लाभ है ।वचन ७६ -- तमाम कर्मो के फल को ईशवर आज्ञा में अर्पण करता जावे , और अन्न प्रीति कर के सत स्वरुप का सिमरन करें ; तब ममता रुपी अंधकार अन्तर से नाश हो जाता है और समता तत अखंड शब्द अन्तर में प्रकाश करता है । ये ही अवस्था ईशवर प्राप्ति की और परमानन्द स्वरुप है ।
वचन ७७ -- निमख निमख करके ईशवर का सिमरन करना , होना और न होना सब ईशवर आज्ञा में देखना इस निश्चय को धारण करने से दुरमत भ्रम नाश होजाता है और सम स्वरुप परमानन्द अखाए शब्द में स्थिति हासिल होती है । यह ही अखंड और अन्न भक्ति है ! हर वक्त समता तत के विवेक को हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए । यह ही साधन मुक्ति का मार्ग है ।वचन ७८ -- ब्रहम शब्द जिसका का आद है , न अंत है ; सबके अन्तर व्यापक और सबसे न्यारा हा ; तीन कल सम स्वरूप है ; आलख ,अपार , अनामी ईशवर का सिमरण करना , ध्यान करना ही समता ज्ञान को प्रकाश करता है । हर घड़ी ,हर लमह ईशवर का पूर्ण विश्वास रखना चाहिए । इस धरना को हासिल करते - करते समता ज्ञान की स्थिति प्राप्त हो जाती है। तब सर्व स्वरूप एक नारायण ही दिखाई देता है ।वचन ७९ -- द्वैत भावः को नाश करके जीव सत स्वरूप अविनाशी परमेश्वर में लीन हो जाताहै। फ़िर आवागमन के नाशवान दुःख - सुखकर्म चक्र में नही प्राप्त होता । केवल ब्रहम स्वरुपहोजाता है ।वचन ८० -- नित ही सत मार्ग में यतन करो । कल स्वरुप इच्छया के भ्रम को त्याग कर समता ज्ञान ,निष्काम निर्वाण पड़ को प्राप्तहोजाओ ! इस मिथ्या संसार में आने का परम लाभ समता प्राप्ति है ।