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योग - भगवत्प्राप्ति (Yog - Bhagwatprapti)

योग क्या है:-
योग शब्द संस्कृत के 'यूज' धातु से बना है जिसका अर्थ है जोड़ना अर्थात ईशवर से जुड़ना युक्त हो जन अर्थात जीव और ब्रहम के पूरण रूप से मिलन ।
गीता के अनुसार :-
"सम्तवं योग उच्यते " २/४८ समता को योग कहतें है। 'समता' का अर्थ गुरुदेव मंगत राम जी के शब्दों में समझते है। हर हालत में एक रस होना, ग्रहण और त्याग की कामना से मुक्ति हासिल करना यह ही ईशवर की भक्ति और मुक्ति है।
योग की परिभाषा कुछ इस प्रकार है :-
समता को निष्चल बूढी करके विचार करना और विरत रहित मन करके विचार करना ही असली "योग" है।
मह्रिषी पातंजलि के अनुसार :-
योग श्चिन्तवृति निरोध: । (१.२) चित की वृतियों का निरोध ही 'योग' है।
योगवशिष्ट के सब्दों में :
'मनः प्रषमनोपयः योगः इत्यभिधीयते।' मन को शांत करके ही कुशल युक्ति का नाम योग है।
कठोपनिषद में :-
'ता योगमिति मन्यन्ते स्थिराभिनंद्रिये धरणं ' (२.३.११) अर्थात हमारी इन्द्रियों का स्थिर होना अर्थात इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण की अवथा है।
अन्य धर्मों के अनुसार:-
बौध धरम में "योग" शब्द का अर्थ "जुड़ना" से ही है। जुड़ने से तात्पर्य जीवात्मा और परमात्मा परतु बौध धरम में " जीवात्मा और परमात्मा" शब्द का प्रयोग नही हुआ है। उसके स्थान पर बोधिचित और शून्य शब्द आते है। बौध शास्त्र के अनुसार बोधिचित एक प्रकार के जीवात्मा अथवा व्यष्टि चेतन का वाचक है और शून्य परमात्मा अथवा समष्टि चेतन का पर्याय है।
जैन धरम में भी 'योग ' का अर्थ 'जुडना' से सहमत है। मोक्षण योजनादेव योगो हव निरुच्यते .

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