गुरु के आगे शिष्य को कभी झूठ नही बोलना चाहिए । अपने अंदर जो भी कमी पेशी हो या कोई त्रुटी हो, खोल कर रख देनी चाहिए । भूल कर भी गुरु के शरीर के साथ पाव न लगावें । सचे प्रेम और विश्वास से गुरुचरणों में हाज़िर होने वाला ही साचा जिज्ञासु है । हर समय आज्ञाकारी भावना रखो । गुरु के नाम को उचारण करने वाले को भी प्रणाम करो । गुरुस्वरूप को बारम्बार नमस्कार करो । जितने भी गुरु की आगया या गुरु के वचनों पर मर्मिटने वाले शिष्य हैं , सबके साथ हित रखो । इन पर अमल करने से ख़ुद अपने अंदर प्रसंता पाओगे । गुरु के देश का भी अगर कोई सज्जन मिल जावे , उस पर भी बल-बल जाने की कोशिश करो । वाणी बड़ी नम्रता से बोलो । मन तन से जो सेवा बन सके करके अपने को कृतार्थ करो । जब गुरु के पास जाओ, हाथ जोड़ कर दंडवत करो , और हाथ जोड़ कर खड़े रहो । जब गुरु आगया देवें तब बैठो या जैसी आज्ञा देवें वैसा करो । दर्शन करके अपने आपको गुरु पर न्योछावर करो । गुरु के मुख से जो वचन निकलें , उनको अपने हृदये में जगह दो और अपने अवगुणों को दूर करो । ऐसे गुरमुखी जिज्ञासु पदके हक़दार होते हैं। किसी के सामने गुरु या साधू की कभी निंदा न करो । गुरु और साधू की स्तुति करने वाला ही प्रभु की महिमा गायन करने वाला है। भगवन के भक्तों की निंदा करने वाला ही ईशवर की निंदा करता है। यही भटकना है। प्रेमी , तुमसे गलती हो भी जाती है , तब भी तुम को ज्ञान , विचार ही मिलेंगे। गुरु हर घड़ी शिष्यों का भला चाहने वाला होता है। शिष्य के अपने कर्तव्य होते है । शिष्य को गुरु के हृदये की बात समझ लेनी चाहिए, उन्हें बताने की ज़रूरत ही न पड़े ।
तुच्छ विचार वालों की संगति से बुद्धि तुच्छ हो जाती है। सामान श्रेणी के मनुष्य की संगति से ज्यों की त्यों बनी रहती है और उच्च विचार वाले की संगति से व्ह श्रेष्टता को प्राप्त होत है .
जा बोल ता अक्षर आवा , जा अबोल ता मन न रहावा ।
बोल अबोल बीच है जोई , जो जस है तिस लखे न कोई।
भावार्थ : - कबीर जी कहतें है की जहाँ वाणी है वहां शब्द अक्षर भी होते हैं और जहाँ अबोल यानि वाणी नही है मौन है यानि जो अशब्द पद हैं वहां मन नही रहता। दुसरे शब्दों में जब मन में फुरना होता है तब वहां शब्द वाणी भी होती है। जब मन का स्फूर्ण शांत होता है वहां वाणी भी शांत हो जाती है। अब कबीर साहिब आगे कहतें हैं की बोल अबोल,वाणी व् मौन या फुरना अफुरना इन दोनों के बीच में जो इनको जानने वाला और सिद्ध करने वाला है उसका जैसा स्वरूप है उसको कोई नही जनता । वह चेतन सत्ता जिसको ब्रह्म या आत्मा कहते है। वहि बोल अबोल के मध्य में रहती ,उनको अनुभव करती और सिद्ध करती है। वास्तव में वही हमारा सत्य स्वरुप आत्मा है। फूरना और अफूरना , विकल्प , निर्विकल्प यह मन की दो अवस्थाएँ हैं । आत्मा उनका साक्षा अवं दृष्ट है। वह आत्मा हम हैं ।
परमेश्वरमहान है। उसी ने सृष्टि का निर्माण किया है। जिस प्रकार एक पेड़ का आधार उसकी जड़ें होती है उसी प्रकार समस्त संसार आधार परमेश्वर है। अच्छे कर्मों के बाद ही मानव शरीर प्राप्त होता है। संसार में मानुष योनी के अतिरिक्त जितनी भी योनियाँ है उनमें जीव अपने कर्मों का फल भोगता है। मानुष को चाहिए जीवन को बर्बाद ना करें ।परमात्मा का चिंतन करके अपने जीवन को महान बनाया जा सकता है ।
बगेर चिन्तें से मन की पवित्रता में वृद्धि नही होती है। इसके आलावा परमात्मा की स्तुति से मनुष्य के चित्त की शुद्धता और प्रार्थना से अंहकार पर काबू पाया जा सकता है।
आदतें आदमीं का जीवन चरित्र बनती है । वहि व्यक्ति अपने जीवन का मालिक होता है, जो अपने निरंकुश स्वभाव और आदतों पर विजय प्राप्त करलेता है। जो अपनी ही आदतों से पराजित हो जाता है वह गुलाम है। धर्म जब जीवन में उतर जाता है ,तो वह चमत्कार करता है । वह जनम जन्मान्तरों के कष्ट काटकर जीवन को ऊंचा उठा देता है। करम शुधि का ध्यान रख कर ही मानव अपने जीवन को आनंद पूर्ण बना सकता है।
जीवन में कुछ बन्ने के लिए खास तरह के अनुशासन की आवश्यकता होती है। अनुशासन में शक्ति होती है, बल होता है। इस लिए सत्संग में आने वाले साधक को अनुशासन में रहना ज़रूरी है। आतम कल्याण के मार्ग में पूर्ण रूप से एकाग्रचित होकर बैठना चाहिए।जीवन को व्यवस्थित बनने की भी आवश्यकता है। व्यवस्थित जीवन मनुष्य को संतुलित बनता है।